फर्क पडता
हैं - विष्णू नागर
मौसम बदलता हैं तो फर्क पडता हैं
चिडिया चहकती हैं तो फर्क पडता हैं
बेटी गोद मै आती हैं तो फर्क पडता हैं
भूख बढती हैं, आत्महत्याए होती हैं तो फर्क पडता हैं
आदमी अकेले लडना तय करता हैं तो फर्क पडता हैं
असमानमे बादल छा जाते हैं तो फर्क पडता हैं
आंखे देखती हैं, कान सुनते हैं तो फर्क पडता हैं
यहा तक कि यह सोचनेसेभी फर्क पडता हैं की क्या फर्क
पडता हैं
जहां भी आदमी हैं, हवा हैं, रोशनी हैं, असमान हैं,
अंधेरा हैं, पहाड हैं, नादिया हैं, समुद्र हैं, खेत
हैं,
पक्षी हैं, लोग हैं, आवाजे हैं, नारे हैं . .
फर्क पडता
हैं
फर्क पडता हैं इसलिये
फर्क लानेवालोंके साथ लोग खडे होते हैं
और लोग कहने लागते हैं की
“हां ! फर्क पडता हैं !”
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